
#Jhabuahulchul
झाबुआ@आयुष पाटीदार ✍🏻
हर इंसान की ख्वाहिश होती है कि उसकी आखिरी विदाई सम्मान और गरिमा के साथ हो। जब जीवन की साँसें थम जाएँ, तो परिजन बिना किसी बाधा के, शांति और श्रद्धा के साथ उसे अंतिम सफ़र पर विदा कर सकें। लेकिन झाबुआ जिले के पेटलावद विकासखंड के गाँव कचराखदान में यह ख्वाहिश आज भी अधूरी है। यहाँ मौत भी मौसम की मार झेल रही है।
बरसात का यह मौसम ग्रामीणों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाता है। किसी परिवार में मृत्यु हो जाने पर जब शव को श्मशान घाट लाया जाता है, तो चिता जलाना एक जद्दोजहद बन जाता है। लकड़ियाँ लगातार बारिश में भीग जाती हैं, आग सुलगती नहीं और ऊपर से बरसती बारिश चिता को बुझा देती है। ऐसे में परिजन पन्नी और तिरपाल पकड़कर खड़े रहते हैं ताकि अपने प्रियजन की अंतिम विदाई पूरी कर सकें। सोचिए, विदाई का वह क्षण जो आँसुओं और श्रद्धा से भरा होना चाहिए, वह यहाँ संघर्ष और अपमान का रूप ले लेता है।
हाल ही में सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो ने इस दर्दनाक सच्चाई को सामने ला दिया है। वीडियो में साफ़ दिखाई देता है कि कैसे गाँववाले बारिश में भीगते हुए शव को जलाने की कोशिश कर रहे हैं। ग्रामीण पल्ली बिछाकर लकड़ियाँ जमाते हैं, लेकिन भीगने की वजह से चिता सुलग ही नहीं पाती। यह दृश्य केवल एक परिवार की बेबसी नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की विफलता का प्रमाण है।
आखिर क्यों 75 साल बाद भी कचराखदान गाँव के श्मशान घाट पर शेड तक नहीं बनाया गया?
क्या विकास केवल शहरों तक सीमित है और गाँव आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहेंगे?
जब अंतिम यात्रा तक गरिमा और सम्मान न मिले, तो फिर अमृतकाल के जश्न का क्या मतलब रह जाता है..?
ग्रामीणों ने बताया कि यह समस्या नई नहीं है। हर बरसात में यही हाल होता है। नेताओं के वादे आते-जाते रहते हैं, चुनावी भाषणों में बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, लेकिन श्मशान घाट पर शेड जैसी बुनियादी सुविधा देने की किसी ने कभी ज़हमत नहीं उठाई। ग्रामीण कहते हैं कि जब भी इस विषय को उठाया जाता है, तो सिर्फ आश्वासन मिलता है। मगर दशकों बाद भी समस्या जस की तस बनी हुई है।