माटीकला के कलाकारों को आत्मनिर्भर बनाना होगा।
रायपुरिया@राजेश राठौड़
अब हमें चाक चलाते नहीं आता है हमारे पिता चला लेते थे वह बड़ी सुंदर तरीके से मिट्टी के बर्तन दीपक व अन्य चीजें बड़ी आसानी से बना लेते थे लेकिन हमें नहीं आता क्योंकि उनके साथ बैठक कर सीखें ही नहीं यह बात गांव के गोपाल प्रजापत, जगदीश प्रजापत बताते हैं वह कहते हैं अपने बुजुर्ग द्वारा बताए गांव के लिए बाहर से मिट्टी के बर्तन, दीपक खरीदकर लाते हैं ताकि उन लोगों के दिपावली पर्व पर उनके घरों पर रोशनी हो जाए अभी हमें अपने जेब से पैसे देकर यह चीजें खरीद कर लाते है हमारे बुजुर्ग द्वारा बताए गांव जाते हैं उन घरों पर दीपक व मटकी रखते हैं फिर एक डेढ़ माह बाद उनके घरों पर पहुंचते वह हमें अनाज देते हैं एक जगह से पांच किलो मिलता है ऐसे कर पांच से सात क्विंटल हो जाता है जिससे साल भर का हमारा गुजर बसर हो जाता है बुजुर्गों की बताई हुई परंपरा निभा रहे हैं देखा जाए तो माटी कला हमारे देश की शान है इसमें हमारी परंपरा और संस्कृति झलकती हैं अगर शासन द्वारा इन माटीकला के कलाकारों को प्रोत्साहन मिलता है जैसे इलेक्ट्रॉनिक चाक उपलब्ध कराए जाए माटीकला पर कार्यशाला का आयोजन किया जाए ताकी ग्रामीण क्षेत्रों के कलाकार अपने पूर्वजों की इस कला को जिंदा रख सके जिससे वोकल फोर लोकल को बढ़ावा भी मिलेगा ये कलाकार आत्मनिर्भर भी हो सकेंगे ।